शहर के सबसे पॉश इलाके में बने आलिशान मॉल के पास खाली पड़ी सरकारी ज़मीन पर अवैध तरह से बनी थी वो बेनाम बस्ती। कारीगर रहते थे वहां .... शायद कारीगर कहना ही ठीक होगा उन्हें । साल भर अपने हाथों से कुछ ना कुछ बनाते और पास फुटपाथ पर ही बेचते। कभी तरह तरह के खिलोने तो कभी बेंत की कुर्सियां और मेज़, नवरात्रों में माँ दुर्गा की मूर्तियाँ तो गणेश उत्सव पर गणेश की मूर्तियां । जो भी बनाते उसमें जान फूंक देते । फिर भी ना उन्हें इस शहर में वो सम्मान मिला ना सर पर छत। जहाँ जाते किराये पर घर खरीदने वहीँ से बेइज़्ज़त करके निकाल दिए जाते क्योंकि शहर शहर भटकते थे वो लोग उनका कोई एक ठिकाना नहीं था लिहाज़ा इस तरह सरकारी ज़मीन पर लकड़ियों और बरसाती के सहारे कई झोंपड़ियाँ बन गई और 20-25 झोंपड़ियों ने मिलकर छोटी बस्ती की शक्ल ले ली । बेनाम और अस्तित्वहीन बस्ती जिसे आते-जाते सब हिक़ारत भरी नज़रों से देखते हैं , जैसे वो सब बस कचरे का ढेर हों और कुछ नहीं। उनके बनाये खिलौनों से शहर केे बच्चों का बचपन आबाद हैे , उनकी बनाई मूर्तियों के बिना शहर का कोई भी पंडाल अधूरा रहता । फिर भी वो हैं बस कचरे का ढ़ेर, बेनाम बस्ती में रहने वाले बेनाम लोग । वो बेनाम बस्ती जिसे हमनें ही जन्म दिया है । और अब वो बेनाम लोग हमें आते जाते हिकारत भरी नज़रों से देखते है। शहर के सबसे पॉश इलाके में अपनी बस्ती से ऊँची ऊँची इमारतों को ठेंगा दिखाते है ।
Tuesday 23 December 2014
Sunday 29 June 2014
एक अरसे बाद आज अपने ही ब्लॉग में लिखकर अजीब सी ख़ुशी का अहसास हो रहा है जैसे बहुत दिन दूसरे शहर सेर सपाटा करके घर लौटने पर जो ख़ुशी मिलती है ना बिलकुल वैसी ………
अच्छा लग रहा है अपने इस घर में फिर से लौटकर जहाँ की दीवारें भी मेरी है और खिड़कियां भी.... और खिड़की के बाहर वो जो चिड़िया बैठी है ना रूठकर वो भी है तो मेरी अपनी ही पर बस अभी ज़रा नाराज है, बहुत दिनों से इसे इस खिड़की पर कोई दाना रखा हुआ जो नहीं मिला और आज दाना पानी सब रखा है तो थोड़े नखरे इसके भी बनते है।
…………
Tuesday 14 January 2014
लघु कथा - (भूख -प्यास )
"10 साल के रघु ने माँ से कहा "माँ बहुत भूख लगी है" माँ बोली बेटा अभी पानी पी ले पेट नहीं दुखेगा, तू फ़िक्र मत कर आज तेरे पिताजी जरुर खाने को कुछ लेकर आयेंगे।
उधर रघु का बाप रमेश घर लौट रहा था आज उसे 50 रु. मजदूरी भी मिली थी रस्ते में उसे अपने शराबी दोस्त मिल गए और कहने लगे मजदूरी करके थक गया होगा ना चल ठेके पर चलते है एक-एक थैली पीते है। रमेश भी उनके साथ चल दिया पर तीन लोगो की शराब की प्यास 50 रु से कहाँ बुझ पाती.....
रमेश अपनी प्यास बुझा के घर पहुंचा तो रघु और उसकी माँ पेट पर कपड़ा बांधे 4 दिन के भूखे जमीं पर बेसुध पड़े थे..."
बेबसी
शाम गहरा रही थी, मौसम का मिज़ाज़ भी कुछ ठीक नहीं था ऐसा लग रहा था जैसे वो भी नाराज़ हो, दुखी हो और मोका मिलते ही फूट फूट के रोने लगेगा उसे भी दिलासे कि दरकार थी पर कौनसा आसमान उस बिगड़ते मौसम को संभाल सकता था यूँ भी अक्सर बुझे दिल और बेबस हालातो में हम अकेले ही तो होते है....
सोचते सोचते मोहन कुछ देर यूँ ही शून्य में ताकता रहा फिर किसी तरह बेमन से घर जाने का इरादा कर ही लिया, सामान समेटने के लिए अपने सब्जी के ठेले की तरफ मुड़ा, आज फिर ५-६ किलो से ज्यादा सब्जियां नहीं बिक पाई थी, जिस भी गली में जाता सब टोकते "अरे! तू सब्जी बेच रहा है या सोना चांदी इतनी महँगी?" मोहन समझाने कि कोशिश करता "बहन सा महंगाई तो हर चीज़ में बड़ी है फिर मुझे जो भाव में मंडी से सब्जियां पड़ती है मैं बस अपने पेट जितना उसमे जोड़ के बेच देता हूँ, दाम आपको थोड़े ज्यादा लगेंगे पर माल बिलकुल चोखा मिलेगा" तपाक से जवाब मिलता "वाह वाह ! महंगाई तो बस तेरे लिए ही बड़ी है सब जानती हूँ मैं, ये जो नए किराना और सब्जियों के रीटेल दुकान खुले है वहाँ सब्जियां तेरे भाव से आधे भाव पर मिल जाती है वहीँ से लूंगी मैं तो " मन में झुंझुलाहट और आँखों में बेबसी लेकर मोहन आगे बड़ जाता। इन बड़ी बड़ी रीटेल दुकानो ने मोहन जैसे कई छोटे छोटे सब्जियों और फलो के व्यापारियों के पेट पर लात मार दी थी, इन दुकानो में माल सीधा किसानो से आता पर मोहन जैसे व्यापारियों को तो बड़े ठेकेदारो , मंडी में माल पहुँचाने वाले एजेंटों और फिर मंडी के व्यापारियों सभी का सामना करना पड़ता और फिर इतनी गुंजाईश ही नहीं बचती कि वो अपना भी अच्छा मुनाफा जोड़ सकें कम मुनाफे पर बेचने पर भी मोहन का ठेला अक्सर भरा ही घर तक जाता और उसके बच्चे का पेट उस दिन आधा ही भर पाता, आज फिर यही होने वाला था आँखों के किनारे अपनी बेबसी की एक बूंद छिपाते हुए मोहन अपने घर कि तरफ चल दिया।
- लीना गोस्वामी
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