Saturday 2 April 2016

यूँ ही कुछ भी.....


शब्द इधर उधर बिखर रहे है, ख्याल कोई मुक्कमल शक्ल सूरत नहीं पा रहे। जो बातें कही जा सकती है वो सामने आने में डरती है, वो कोना पकड़ कर छुपने में अब माहिर हो चुकी है और मैं जिद्दी अब भी कुछ लिख डालने कुछ कह डालने की जिद्द पर अड़ी हूँ, ऐसे रास्ते खोजने में जुटी हूँ जिससे जो अंदर है वो बाहर आ सके।  क्यूंकि जैसे भी हो उल्टा फुल्टा, आधा- अधूरा, टुटा फूटा।  जैसे भी हो बस अंदर का गुबार बाहर निकलना बेहद जरुरी है, जो बातें कही जानी चाहिए उन्हें कांपते होंटो से या रूकती सांसो से जैसे भी हो कह देना जरुरी है, वरना ना कहने की आदत हो जाती है चाहे सही हो या गलत कुछ न करने की फितरत बन जाती है इसीलिए कहना जरुरी है, लिखना जरुरी है, व्यक्त करना जरुरी है और खुद में खुद को कहीं न कहीं बचाए रखना उससे भी ज्यादा जरुरी है। 

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